Skip to main content

आदिवासी लड़कियां, क्रिकेट और जापानी: एक चौंकाने वाली सफलता की कहानी!

क्रिकेट के जादू से शिक्षा की ओर: स्कूल न जाने वाली आदिवासी लड़कियों की प्रेरक कहानी

क्रिकेट के जादू से शिक्षा की ओर: स्कूल न जाने वाली आदिवासी लड़कियों की प्रेरक कहानी

“हम स्कूल नहीं जाते थे। दिन भर इधर-उधर घूमते रहते थे। खैनी खाते थे। नाले के पास के पेड़ों पर चढ़ते थे। कोई-कोई नाले में भी गिर जाता था। जुआ भी खेलते थे। सड़कों पर घूमना, कभी किसी के घर चोरी करना, तो कभी लोहा बीनने जाना और उससे मिलने वाले पैसों से खाना खाना। लेकिन, अब सब बदल गया।”

पंद्रह वर्षीय निशा मरकाम अपने हाथों में पकड़ी गेंद को देखकर बताती है कि वह कैसे बदली। क्योंकि, इसी गेंद ने उसकी जिंदगी बदल दी। निशा अपने घर के पास के मैदान पर रोजाना क्रिकेट का अभ्यास करती है और झूलन गोस्वामी जैसी बॉलर बनने का सपना देखती है।

उस जैसी और 20 आदिवासी लड़कियां हर सुबह और दोपहर अपनी बस्ती के पास के मैदान पर अभ्यास करती हैं और बड़े मैदान पर क्रिकेट खेलने का सपना देखती हैं।

उन्होंने अपनी ताकत पर नागपुर के एक बड़े क्रिकेट टूर्नामेंट की विजेता टीम को भी हराया। बिना किसी प्रशिक्षण के अपनी ताकत पर मिली यह उनकी पहली जीत है।

इन सभी लड़कियां किसी बड़े क्रिकेट क्लब की खिलाड़ी नहीं हैं।

'पिता को काम नहीं मिला तो उस दिन भूखे ही सोते हैं'

ये सभी लड़कियां किसी बड़े क्रिकेट क्लब की खिलाड़ी नहीं हैं। वे नागपुर शहर के मानेवाड़ा इलाके की सिद्धेश्वरी आदिवासी गोंड बस्ती की लड़कियां हैं।

उनकी पीढ़ियों का जीवन झोपड़पट्टी में ही बीता है। इस बस्ती में मूलभूत सुविधाओं की तो बात ही छोड़ दीजिए, कभी घर में खाने को अन्न भी नहीं मिलता।

उनकी स्थिति यह है कि जिस दिन पिता को काम नहीं मिलता, उस दिन चावल में नमक का पानी डालकर खाना पड़ता है।

इस बस्ती की महिलाएं शौच के लिए भी खुले में बाहर जाती हैं। इसी बस्ती की क्रिकेट खेलने वाली लड़की राशि मरकाम बताती है कि बस्ती में टॉयलेट बनाकर दिए हैं, लेकिन पानी नहीं होने के कारण बाहर जाना पड़ता है।

वह कहती है, मेरे बाबा लकड़ी काटने, नाले साफ करने जैसे जो भी काम मिलता है, करने जाते हैं। जिस दिन काम नहीं मिलता, उस दिन हम भूखे ही सोते हैं। हमारी बस्ती में पानी नहीं है। बोरवेल है, लेकिन उसमें भी पानी नहीं आता। कभी टैंकर नहीं आया तो शेष नगर जाकर धूप में पानी भरते हैं। रात को बाहर शौच करने जाते हैं तो डर लगता है।

राशि के क्रिकेट टीम की कप्तान और उसकी बहन राधा स्मृति मंधाना जैसी बनना चाहती है, तो इसी क्रिकेट टीम की कुमुद विराट कोहली बनने का सपना देखती है।

लेकिन, अपनी बस्ती की स्थिति बताने वाली राशि क्रिकेट के माध्यम से बस्ती की तस्वीर बदलने का सपना देखती है।

जिस दिन पिता को काम नहीं मिला उस दिन भात में मीठा पानी डालकर खाना पड़ता है ऐसी इनकी परिस्थिती।

वह कहती है कि मुझे किसी जैसा नहीं बनना, बल्कि लोग मेरे जैसा बनें, इतना बड़ा बनना है। मुझे बड़े मैदान पर खेलकर, देश के लिए खेलकर इस बस्ती के लोगों को बाहर निकालना है।

राशि तीन बहनें हैं और ये तीनों बहनें क्रिकेट खेलती हैं। राशि की बहन राधा उनकी टीम की कप्तान है। लड़कियों का सपना और क्रिकेट के लिए उनकी मेहनत देखकर पिता किरण मरकाम को गर्व होता है।

वे कहते हैं, "मेरी बेटियां क्रिकेट का कोई भी मैच नहीं छोड़तीं। आईपीएल देखती हैं, अभी हुई चैंपियन ट्रॉफी देखी। अब उन्हें प्रत्यक्ष मैदान पर देखकर आनंद होता है। हमारी बेटियों की अच्छी प्रगति होनी चाहिए। हमने जो झोपड़पट्टी में भोगा है, वह उनके हिस्से न आए।"

स्कूल न जाने वाली लड़कियां अंग्रेजी शब्द और जापानी भाषा कैसे बोलने लगीं?

किरण मरकाम की तीनों बेटियां क्रिकेट खेलती हैं। लेकिन, स्कूल में नाम होने के बावजूद वे स्कूल नहीं जातीं। सिर्फ ये तीन ही लड़कियां नहीं, बल्कि इस बस्ती की 5-6 लड़कियों को छोड़कर लगभग 30 लड़कियां स्कूल नहीं जातीं।

क्योंकि, घर से स्कूल 10-12 किलोमीटर दूर है और रिक्शा भी नहीं आती। इसके अलावा गोंडी और हिंदी ये दो ही भाषाएं आने के कारण मराठी स्कूल में मन भी नहीं लगता। इसलिए ये लड़कियां स्कूल नहीं जातीं।

लेकिन, सरकारी स्कूल से मुंह मोड़ने वाली ये लड़कियां अब अंग्रेजी के शब्द और जापानी भाषा बोलने लगी हैं। सॉरी, थैंक्यू, वेलकम जैसे अनेक अंग्रेजी शब्दों को जापानी भाषा में क्या कहते हैं, ये लड़कियां फटाफट बताती हैं। साथ ही उन्हें हिंदी में वाक्य बताया जाए तो वे उसे अंग्रेजी में क्या कहते हैं, ये भी ये लड़कियां बताती हैं।

किरण मरकाम की तीनों बेटियां क्रिकेट खेलती हैं।

लेकिन, स्कूल न जाने के बावजूद ये लड़कियां ये सब कैसे सीखीं? तो यह संभव हुआ सिर्फ सेवा सर्वदा इस सामाजिक संस्था के कारण। क्योंकि, सामाजिक कार्यकर्ता खुशाल ढाक ने इस बस्ती में दो साल पहले टीन की एक पाठशाला बनाई।

खुशाल ढाक नागपुर की झोपड़पट्टियों के बच्चों को शिक्षा देते हैं। जो घुमंतू लोगों की बस्तियां हैं, उन बस्तियों में भी वे पिछले 19 सालों से शिक्षा देने का काम करते हैं। उसी तरह उन्होंने इस बस्ती में भी टीन की पाठशाला बनाकर इन लड़कियों को शिक्षा देना शुरू किया।

वे बताते हैं, "मैं इस बस्ती में आया तो यहां शिक्षा शून्य प्रतिशत होने का एहसास हुआ। फिर मैंने 19 सालों से जिन बस्तियों में शिक्षा देने का काम करता हूं, उसे इस बस्ती से भी जोड़ने का फैसला किया।"

“हमने जैसे-तैसे टीन का शेड बनाकर एक लड़की से यह स्कूल शुरू किया। शुरुआत में विद्यार्थी कम थे। लेकिन, धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ गई।”

खुशाल ढाक नागपुर की झोपड़पट्टियों के बच्चों को शिक्षा देते हैं।

सिद्धेश्वरी गोंड बस्ती में हर शाम 5 बजे यह स्कूल लगता है। इसमें बच्चों को आज की जरूरत के अनुसार बेसिक शिक्षा, पढ़ना, लिखना, बोलना कैसे है, व्यवहार कैसा करना है, ये सब चीजें सिखाई जाती हैं। उनकी इस टीन की पाठशाला में लड़कों से ज्यादा लड़कियों की संख्या है, यह विशेष है।

बस्ती से स्कूल पास होने वाली लड़कियां दिन भर सरकारी स्कूल जाती हैं और शाम को फिर इस स्कूल में पढ़ती हैं। लेकिन, ये लड़कियां उंगलियों पर गिनने लायक ही हैं। बस्ती की 5-6 लड़कियों को छोड़कर बाकी लड़कियां स्कूल ही नहीं जाती थीं।

स्कूल दूर होने के कारण स्कूल न जाने वाली लड़कियां इस बस्ती के स्कूल में मगर शौक से आती हैं। इस स्कूल में उन्हें समझ में आने वाली भाषा में सिखाया जाता है। इन बच्चों को सिखाने के लिए खुशाल ढाक ने बस्ती के पास की एक महिला को शिक्षिका के रूप में नियुक्त किया। वह हर शाम बच्चों को खुशनुमा माहौल में सिखाती हैं। पिछले 3 महीनों से बच्चों को जापानी भाषा बोलना भी सिखाया जा रहा है।

ये स्कूल न जाने वाली लड़कियां क्रिकेट के कारण शिक्षा में कैसे रम गईं?

लेकिन, पिछले कुछ सालों से स्कूल न जाने वाली लड़कियों का शिक्षा में आसानी से मन नहीं लगता था। फिर इसके लिए खुशाल ढाक ने बच्चों को खेल खिलाना शुरू किया। बच्चों को जो पसंद था, वे खेल खेलते थे। इसी माध्यम से उन्हें शिक्षा भी देना जारी रखा।

ढाक बताते हैं, "पहली बार दौड़ना, कबड्डी और फुटबॉल शुरू किया। लेकिन, इसमें लड़कियों की रुचि नहीं दिखी। फिर उन्हें जो पसंद था, वे खेल खेलने दिए। तो लड़कियां विटी-डंडू उत्तम खेल रही थीं। लेकिन, इस खेल के कहीं टूर्नामेंट नहीं होते। इसलिए अगर गिल्ली-डंडू खेलने वाली लड़कियों के हाथ में क्रिकेट का बैट दिया जाए तो ऐसा विचार मन में आया। शुरुआत में उनकी तरफ बॉल फेंका तो उनकी पकड़ जबरदस्त थी। फिर उनका क्रिकेट का अभ्यास शुरू किया।"

स्कूल दूर होने के कारण स्कूल न जाने वाली लड़कियां इस बस्ती के स्कूल में मगर शौक से आती हैं।

आगे वे कहते हैं, "शिक्षा में पिछड़ापन तो था ही। इसलिए सिर्फ खेल खेलकर काम नहीं चलने वाला था। उनका शिक्षा में भी मन लगना जरूरी था। फिर इसके लिए बॉल पकड़कर "बे एक बे एक बे दुणे चार", बैट के माध्यम से "ए फॉर एप्पल बी फॉर बॉल" ऐसे सिखाया। उन्हें क्रिकेट के माध्यम से शिक्षा में रुचि पैदा हुई।"

अब क्रिकेट के माध्यम से शिक्षा के पिछड़ेपन को दूर करते हुए ये स्कूल न जाने वाली लड़कियां शिक्षा में रमती हुई दिखती हैं। इसलिए पहले बस्ती और बस्ती के आसपास के लोगों को देखने का जो नजरिया था, वह अब पूरी तरह से बदल गया है, ऐसा राशि बताती है।

अब क्रिकेट के माध्यम से शिक्षा के पिछड़ेपन को दूर करते हुए ये स्कूल न जाने वाली लड़कियां शिक्षा में रमती हुई दिखती हैं।

वह कहती है, "मैं क्रिकेट खेलती हूं और पढ़ाई भी करती हूं। पहले हम इधर-उधर भटकते थे तो लोग हमें कुछ भी बोलते थे। लेकिन, अब हम जापानी भाषा बोलते हैं, क्रिकेट खेलकर जीतकर आते हैं तो बस्ती के लोगों को आनंद होता है। बाहर के लोग भी कहते हैं कि अब इन लड़कियों में बदलाव आया है।"

यूनिसेफ के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में 12 करोड़ 20 लाख लड़कियां स्कूल नहीं जातीं। उनमें से लगभग साढ़े तीन करोड़ लड़कियां प्राथमिक स्कूल तक भी नहीं पहुंच पातीं। क्रिकेट जैसे खेल उन्हें स्कूल तक पहुंचाने में मदद कर रहे हैं। लेकिन अभी भी उन्हें सरकारी स्कूल तक पहुंचने का लक्ष्य हासिल करना है। इसके लिए प्रयास होने की जरूरत है।

(कलेक्टिव्ह न्यूजरूम का प्रकाशन।)

Comments

Popular posts from this blog

Deepika Padukone Slams L&T Chairman’s Shocking Comments on Sunday Work Culture – Sparks Work-Life Balance Debate!

  Deepika Padukone Condemns L&T Chairman’s Controversial Comments on Sunday Work Culture Larsen & Toubro (L&T) Chairman SN Subrahmanyan has sparked outrage with his recent comments suggesting employees should work on Sundays. Renowned actor and mental health advocate Deepika Padukone criticized his remarks, calling them “shocking” and emphasizing the need for employee well-being. What Did SN Subrahmanyan Say? A video circulating on Reddit shows Subrahmanyan responding to a question about L&T’s six-day workweek, which includes mandatory Saturdays—a rarity in today’s corporate world. During the discussion, he expressed regret for not being able to implement Sunday work as well. “I regret I am not able to make you work on Sundays. If I can make you work on Sundays, I will be more happy because I work on Sundays,” he said. Adding to the controversy, he made comments about employees’ personal time, stating, “What do you do sitting at home? How long can you look at your w...

They Were Fired. What This CEO Did For Them Will Restore Your Faith in Humanity

OkCredit CEO's Empathetic Layoff Approach Praised OkCredit CEO's Empathetic Layoff Approach Praised https://www.linkedin.com/posts/harsh-pokharna_harshrealities-activity-7313063619171106817-sjJi?utm_source=share&utm_medium=member_android&rcm=ACoAADQH0WQBrgpbgBaIqTgwvKdxDh9Ffj7mtHU In a refreshing contrast to the often impersonal layoff procedures in the tech world, OkCredit CEO Harsh Pokharna has garnered widespread praise for his compassionate handling of a difficult situation. Earlier this year, Pokharna's Bengaluru-based company had to let go of 70 employees. Instead of resorting to cold emails or abrupt dismissals, OkCredit prioritized clear communication and employee well-being. “Eighteen months ago, we laid off 70 people,” Pokharna shared on LinkedIn. “We were burning too much. Hired too fast. It was our mistake. And we owned it. It was one of the hardest things I’ve done as a founder. But we tried to do it the right way.” A People-First Appro...